बात यही हर बार जिस्म मैं सुलगती रही


बात यही हर बार जिस्म मैं सुलगती रही
बात यही हर बार जिस्म मैं सुलगती रही


ज़िन्दगी अक्सर मेरा इम्तेहान लेती रही दुसरो को बनाया खुदकी पहचान जाती रही;
मंजिल तक पहुंच जाते हम भी एक दिन  पर राह पर चलते नजरे अक्सर भटकती रही;
हाथ पकड़ कर सबको पारर लगाते गए अपनी ही ज़िन्दगी मजधार मैं लटकती रही;
अपनों ने ही दी है ठोकर हर बार बात यही हर बार जिस्म मैं सुलगती रही;
बयान करते भी तो कैसे अपना हाल ऐ दिल होंठ सील गए थे साँसे अटकती रही;
आलम ऐ तन्हाई मैं कैसे वक़्त गुजरता जीत दिल तड़पता तड़पता रहा आँखे आंसू छलकती रही;



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